Monday, November 23, 2009

एक और कविता जो मेरे दिल के बहुत ही करीब है और जिसे आप तक पहुँचाना चाहता हूँ........
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मेरे  इश्क  के  जख्म
अक्षर  अक्षर  रंग बदले
सांस  सांस  आग  बने

मेरी  तन्हाई  का  मनहूस  सफा
कोरा  का  कोरा  ही  रहा
मैंने  जब  चाहा  फाड़  दिया
जब  चाहा  जिसे -कोसा

जज्वात  के  पूरे  काफिले  को 
अहद  की  बारूद  पर  रोक  दिया

लम्हा  लम्हा  मेरी  तकदीर
आँख  की  तरह  फडके
और
मेरा  ‘मैं’  मुझसे  जिद  करे 
लेकिन  मेरा  ‘मैं’ नपुंशक   है ……..
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4 comments:

  1. मेरी तन्हाई का मनहूस सफा
    कोरा का कोरा ही रहा
    मैंने जब चाहा फाड़ दिया
    जब चाहा जिसे -कोसा ...

    dil ki gahraaiyon se likhi sundar rachna hai ...

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  2. जज्वात के पूरे काफिले को
    अहद की बारूद पर रोक दिया
    bahut hi badhiyaa

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  3. kafi gehra likhte hain aap...achcha laga aapki rachnayen padhkar...
    blog par aane ka bhaut shukriya.

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  4. अच्छा बहुत अच्छा लिख रहे हैं आप
    यूँ ही लिखते रहें अच्छे लेखकों को पढ़ना और यथा संभव अपनी प्रतिक्रिया देना भी अच्छी आदत है
    पिता जी की कविता 'मुखौटा सा लगता है' --लाजवाब है। मंटो की लघु कहानियाँ बेहद अच्छी हैं खासकर
    'बेखबरी का फायदा'।

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