बहुत दिनों आज लिखने बैठा हूँ, वजह यह की कुछ समय से परेशान सा था. कुछ रिश्तों को बचाने में लगा था तो कुछ की हकीक़त जानने में. दरअसल कुछ गलतफहमियां पैदा हो गई थीं और कोई बैठ कर बात करने तैयार नहीं था. और दूरियों से, चुप्पी से कोई समस्या हल होने से रही, बल्कि गलतफहमियों को ही दिलो-दिमाग में जगह मिलती जाती है. खैर आज फिर मैं अपने पिताजी की एक और रचना लाया हूँ आपके लिए..................
तुम्हारा हुस्न कुछ यूँ जला
मेरी प्यास कुछ यूँ उठी की
ओक में सब्र का पानी खोलने लगा
मैंने हर तरफ नज़र फेंकी और देखा
लोग,
सुलगते दिलों पर उँगलियाँ सेंकते हैं
इश्क इतना बदनाम तो नहीं
कि लाख अल्फाज़ एक साथ चीखें
और इश्क को धक्के मारें
आओ, नस नस में दौड़ते लहू को
रोएँ रोएँ टांके खोलकर
रवायतों के बूढ़े शजर पर सींच दें
रवायतों का शजर
हरियाये न हरियाये, लेकिन
हमारे ज़ख्म ज़रूर हरे होंगे.
Wednesday, December 23, 2009
Friday, December 4, 2009
पत्थर की नदी पर ........
आज पेश कर रहा हूँ हकीकत बयाँ करती एक नज़्म जो निकली है मेरे पिता जी 'श्री सुरेश 'जोगी' की कलम से और आज आपके सामने है..................
पत्थर की नदी पर
सितारों का काफिला उतरा
पत्थर नदी की अपनी वेदना थी
सितारों का अपना दर्द था.
दोनों ने शिकायत भरा ख़त
बस्ती के नाम लिखा,
नदी की शिकायत थी
कोई मल्लाह लंगर नहीं खोलता
सितारों का शिकवा था
कोई छोरी आँचल नहीं भरती.
हवा ने कहा
पत्थर नदी में आग पलती है
सितारों का काफिला
प्यास उगलता है
बस्ती की शिकायत है
न पत्थर की नदी होती है
न सितारे ज़मीं पर उतरते हैं
और, हर आँख ने कहा
कि हमने नहीं देखा ...
पत्थर की नदी पर
सितारों का काफिला उतरा
पत्थर नदी की अपनी वेदना थी
सितारों का अपना दर्द था.
दोनों ने शिकायत भरा ख़त
बस्ती के नाम लिखा,
नदी की शिकायत थी
कोई मल्लाह लंगर नहीं खोलता
सितारों का शिकवा था
कोई छोरी आँचल नहीं भरती.
हवा ने कहा
पत्थर नदी में आग पलती है
सितारों का काफिला
प्यास उगलता है
बस्ती की शिकायत है
न पत्थर की नदी होती है
न सितारे ज़मीं पर उतरते हैं
और, हर आँख ने कहा
कि हमने नहीं देखा ...
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