बहुत दिनों आज लिखने बैठा हूँ, वजह यह की कुछ समय से परेशान सा था. कुछ रिश्तों को बचाने में लगा था तो कुछ की हकीक़त जानने में. दरअसल कुछ गलतफहमियां पैदा हो गई थीं और कोई बैठ कर बात करने तैयार नहीं था. और दूरियों से, चुप्पी से कोई समस्या हल होने से रही, बल्कि गलतफहमियों को ही दिलो-दिमाग में जगह मिलती जाती है. खैर आज फिर मैं अपने पिताजी की एक और रचना लाया हूँ आपके लिए..................
तुम्हारा हुस्न कुछ यूँ जला
मेरी प्यास कुछ यूँ उठी की
ओक में सब्र का पानी खोलने लगा
मैंने हर तरफ नज़र फेंकी और देखा
लोग,
सुलगते दिलों पर उँगलियाँ सेंकते हैं
इश्क इतना बदनाम तो नहीं
कि लाख अल्फाज़ एक साथ चीखें
और इश्क को धक्के मारें
आओ, नस नस में दौड़ते लहू को
रोएँ रोएँ टांके खोलकर
रवायतों के बूढ़े शजर पर सींच दें
रवायतों का शजर
हरियाये न हरियाये, लेकिन
हमारे ज़ख्म ज़रूर हरे होंगे.
Wednesday, December 23, 2009
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रवायतों का शजर
ReplyDeleteहरियाये न हरियाये, लेकिन
हमारे ज़ख्म ज़रूर हरे होंगे.
आप वापस आ गये बहुत अच्छा लगा ....... जीवन है कुछ न कुछ तो लगा रहता है........ बहुत अच्छी रचना है आपके पिता जी कमाल का लिखते हैं .......
आओ, नस नस में दौड़ते लहू को
ReplyDeleteरोएँ रोएँ टांके खोलकर
रवायतों के बूढ़े शजर पर सींच दें
...........waah
इस सुन्दर रचना के लिए बहुत -बहुत आभार
ReplyDeleteनव वर्ष की हार्दिक शुभ कामनाएं
सचमुच बहुत दिन हुए, आपने कुछ पोस्ट नहीं किया.
ReplyDeletevery nice...
ReplyDeleteheart touching....