आज पढिये मेरे पिताजी श्री सुरेश 'जोगी' की एक कविता.....
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मुखौटे के बावजूद , पहचान लिया जाता हूँ
फिर जहां खड़ा किया जाता है
हजूम होता है
सवालात किये जाते हैं .
सर के इर्दगिर्द मंडराता परिंदा
कुछ यूँ सोचता होगा कि
यह शख्स गुनाहगार तो नहीं ?
फौलादी हाथ उठेंगे
और मैं चेहरे चेहरे में करूंगा , हमदर्द की तलाश
शाम का पहला सितारा
उदास सा लगता है , आखिर
चराग क्यूँ गुल कर दिए जाते हैं ?
कि
मुझे नीम अँधेरे में
हर चेहरा
मुखौटा सा लगता है ………
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BAHOOT HI GAHRI RACHNA HAI .. AAJ KI DUNIYA MEIN HAR KOI MUKHOTA LAGA KAR CHALTA HAI ...ACHEE RACHNA ...
ReplyDeleteexcellent rachna athaah gahraaii samete
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